जैसे हर झूठ में कुछ ना कुछ सच जरूर होता है, वैसे ही हर गलती में कुछ ना कुछ सही जरूर होता हैं। मझे बहुत खशी हैं कि आज एक जिंदगी को एक आत्मकथ्य में प्रस्तुत करते हुए जहाँ मैंने अपनी जिंदगी को पंक्तियों में संजोया हैं। जहाँ कविताओं में जिंदगी के उन हिस्सों के किस्सों को बताया है जब किसी एक गलती से पूरी दुनिया बदल जाएं, जब ऐसे हालात पैदा हो जाएं जहाँ समाज और अपने आप में से उस वक़्त खुद को चुनना जरूरी हो जाएं। इस जिंदगी के उधड़े हुए धागों को अकेले ही बुनना था। जहाँ मैंने सीखा जिंदगी के सफर में रिश्ते सिर्फ काम आ सकते हैं पर साथ चल नहीं सकते और फिर आखिर में जब कोई नहीं होता तो सिर्फ हम होते हैं। जहाँ हम से हमारा खुद का रिश्ता होता है। जहाँ हम अकेले ही हँसते हैं और अकेले ही रोते है। जहाँ मुस्कुराते तो सबके सामने हैं पर दर्द जो हैं वो अंदर छुपा जाते हैं। और इसी सफर में वो अनजाने चार यार बनकर जीना सिखाते हैं। जब हम चुप होते है उनको आवाज़ बनाकर गुनगुनाना सिखाते हैं। जहाँ एक छोटी सी उम्मीद भी सुकून दे जाती है और कुछ यादें खुद से खुद तक के सफर के वादे में बाँध जाती हैं। जब कोई नहीं होता तो सिर्फ हम होते हैं। जब रिश्तों की जरूरत होती हैं तब वो रिश्ते समाज के साथ हो जाते हैं और हम खुद को अकेले ही सिखाते सिखाते खो जाते हैं। तो फिर क्या जरूरत है अब उन रिश्तों की जो मेरे नहीं उन लोगों के थे साथ जो मुझे खुद ही सिखा कर चले गये खुद से करना बात।